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ओशो साहित्य >> शिव साधना

शिव साधना

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3686
आईएसबीएन :81-288-0495-2

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प्रस्तुत है शिव साधना....

Shiv Sadhana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


ओशो मनुष्यता की वह विरलतम विभूति है, जो अपनी कोटि आप ही हैं। हम उनके समयुगीन हैं, यह हमारा सबसे बड़ा सौभाग्य है। लेकिन उनसे हमारी  यह सन्निधि ही हमसे उनके विराट को ओझल किये देती है। हिमालय की ऊँचाई और विस्तार देखने के लिए दूरी का परिप्रेक्ष्य चाहिए।

मनुष्य की जो चरम संभावना है, वह ओशों में वास्तव हुई है। उन्होंने स्वयं की आदिम, निष्कल, निखिल सत्ता को जाना है। वह मनुष्य में बसी भगवत्ता के गौरीशंकर हैं।

ओशो जगत और जीवन को उसकी परिपूर्णता में स्वीकारते हैं। वह पृथ्वी और स्वर्ग, चार्वाक और बुद्ध को जोड़नेवाले पहले सेतु हैं। उनके हाथों पहली बार अखंडित धर्म का, वैज्ञानिक धर्म का, जागतिक धर्म का उद्घाटन हो रहा है। यही कारण है कि जीवन-निषेध पर खड़े अतीत के सभी धर्म उनके विरोध में खड्गहस्त हैं।
ओशो स्वतंत्रता को परम मूल्य देते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यक्ति की गरिमा के वह प्रथम प्रस्तोता हैं। धर्म नहीं, धार्मिकता उनका मौलिक दान है।

ओशो

ओशो परम दुर्लभ घटना हैं अस्तित्व की। बुद्धित्व की उपलब्धि में सदियों-सदियों, जन्मों-जन्मों का एक तूफान शांत होता है-परम समाधान को प्राप्त है और अस्तित्व उसमें नए रंग लेता है। अस्तित्व का परम सौंदर्य उसमें खिलता है, श्रेष्ठतम पुष्प विकसित होते हैं और अस्तित्वगत ऊंचाई का एक परम शिखर, एक नया गौरीशंकर, वहां उस व्यक्ति की परम शून्यता में निर्मित हो उठता है। ऐसा व्यक्ति अपने स्वभाव के अंतिम बिंदु में स्थित हो जाता है, जहाँ से बुद्घि के भीतर का बुद्ध बोल उठता है, कृष्ण के भीतर का कृष्ण बोल उठता है, क्राइस्ट के भीतर का क्राइस्ट बोल उठता है, पतंजलि के भीतर का पतंजलि बोल उठता है; लाओत्से के भीतर का लाओत्से बोल उठता है और लाखों-लाखों और तूफान परम समाधान की दिशा में मार्गदर्शन पाते हैं।

दृष्टि ही सृष्टि है

पहला प्रवचन  

दिनांक 16 सितंबर, 1974
प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम पूना

नर्तकः आत्मा।
रङ्गोऽन्तरात्मा।
धीवशात् सत्त्वसिद्धिः।
सिद्धः स्वतंत्र भावः।
विसर्गस्वाभाव्यादबहिः स्थितेस्तत्स्थिति।

आत्मा नर्तक है। अंतरात्मा रंगमंच है। बुद्धि के वश में होने से सत्त्व की सिद्धि होती है। और सिद्ध होने से स्वातंत्र्य फलित होता है। स्वतंत्र स्वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है और वह बाहर रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है।

सूत्रों में प्रवेश के पहले कुछ बातें समझ लें। फ्रैड्रिक नीस्ते ने कहीं कहा है कि मैं केवल उस परमात्मा में विश्वास कर सकता हूँ, जो नाच सकता हो उदास परमात्मा में विश्वास करना केवल बीमार आदमी का लक्षण है।
बात में सच्चाई है। तुम अपने परमात्मा को अपनी ही प्रतिमा में ढालते हो। तुम उदास हो-तुम्हारा परमात्मा उदास होगा। तुम प्रसन्न हो-तुम्हारा परमात्मा प्रसन्न होगा। तुम नाच सकते हो तो  तुम्हारा परमात्मा भी नाच सकेगा। तुम जैसे हो, वैसा ही तुम्हें अस्तित्व दिखाई पड़ता है। तुम्हारी दृष्टि का फैलाव ही सृष्टि है। और जब तक तुम नाचते हुए परमात्मा में भरोसा न कर सको, तब तक जानना कि तुम स्वस्थ्य नहीं हुए। उदास, रोते हुए, रुग्ण परमात्मा की धारणा तुम्हारी रुग्ण दशा की सूचक है।

पहला सूत्र है आज का-आत्मा नर्तक है।
नर्तक के संबंध में कुछ और बातें समझ लें। नर्तन अकेला ही एक कृत्य है, जिसमें कर्ता और कृत्य बिलकुल एक हो जाते हैं। कोई आदमी चित्र बनाए, तो बनानेवाला अलग और चित्र अलग हो जाता है। कोई आदमी कविता बनाए, तो कवि और कविता अलग हो जाती है। कोई आदमी मूर्ति गढ़े, तो मूर्तिकार और मूर्ति अलग हो जाती है। सिर्फ नर्तन एक मात्र कृत्य है, यहाँ नर्तक और नृत्य एक होता है; उन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। अगर नर्तक चला जाएगा-नृत्य चला जाएगा। और, अगर नृत्य खो जाएगा तो उस आदमी को, जिसका नृत्य खो गया, नर्तक कहने का कोई अर्थ नहीं। वे दोनों संयुक्त हैं।
इसलिए परमात्मा को नर्तक कहना सार्थक है। यह  सृष्टि उससे भिन्न नहीं है। यह उसका नृत्य है। यह उसकी कृति नहीं है। यह कोई मूर्ति नहीं है कि परमात्मा ने बनाया और वह अलग हो गया। प्रतिपल परमात्मा इसके भीतर मौजूद है। वह अलग हो जाएगा तो नर्तक बंद हो जाएगा। और ध्यान रहे कि नर्तक बंद हो जाएगा तो परमात्मा भी खो जाएगा; वह बच नहीं सकता। फूल-फूल में, पत्ते-पत्ते में कण-कण में वह प्रकट हो रहा है। सृष्टि कभी पीछे अतीत में होकर समाप्त नहीं हो गईं; प्रतिफल हो रही है। प्रतिफल सृजन का कृत्य जारी है। इसलिए सब कुछ नया है। परमात्मा नाच रहा है-बाहर भी, भीतर भी।

आत्मा नर्तक है-इसका अर्थ है कि तुमने जो भी किया है, तुम जो भी कर रहे हो और करोगे, वह तुमसे भिन्न नहीं है। वह तुम्हारा ही खेल है। अगर तुम दुख झेल रहे हो तो यह तुम्हारा ही चुनाव है। अगर तुम आनंदमग्न हो, यह भी तुम्हारा चुनाव है; कोई और जिम्मेवार नहीं है।
मैं एक कालेज में प्रोफेसर था। नया-नया वहाँ पहुँचा कालेज बहुत दूर था गाँव से। और, सभी प्रोफेसर अपना खाना साथ लेकर ही आते थे और दोपहर को एक टेबल पर इकट्ठे होते थे। संयोग की बात थी कि मैं जिनके पास बैठा था, उन्होंने अपना टिफिन खोला, झाँककर देखा और कहा, ‘फिर वही आलू की सब्जी और रोटी !’ मुझे लगा कि उन्हें शायद आलू की सब्जी और रोटी पसंद है। लेकिन, मैं नया था तो कुछ बोला नहीं। दूसरे दिन फिर वही हुआ उन्होंने फिर डिब्बा खोला और फिर कहा कि ‘फिर वही आलू की सब्जी और रोटी !’ तो मैंने उनसे कहा कि अगर आलू की सब्जी और रोटी पसंद नहीं तो अपनी पत्नी को कहें कि कुछ और बनाए। उन्होंने कहा, ‘पत्नी कहाँ है। मैं खुद ही बनाता हूँ।’

यही तुम्हारा जीवन है। कोई है नहीं। हँसो तो तुम हँस रहे हो, रोओ तो तुम रो रहे हो; जिम्मेवार कोई नहीं। यह हो सकता है कि बहुत दिन से रोने की आदत बन गई हो और तुम हँसना भूल गए हो। यह भी हो सकता है कि तुम इतने रोये हो कि तुमसे अब कुछ और करते बनता नहीं-अभ्यास हो गया। यह भी हो सकता है कि तुम भूल ही गए, इतने जन्मों से रो रहे हो कि तुम्हें याद ही नहीं कि कभी यह मैंने चुना था-रोना। लेकिन तुम्हारे भूलने से सत्य -असत्य नहीं होता है। तुमने ही चुना है। तुम ही मालिक हो। और, इसलिए जिस क्षण तुम तय करोगे, उसी क्षण रोना रुक जाएगा।

इस बोध से भरने का नाम ही कि ‘मैं ही मालिक हूँ’, ‘मैं ही सृष्टा हूँ’‘ जो भी मैं कर रहा हूँ उसके लिए मैं ही जिम्मेवार हूँ’–जीवन में क्रांति हो जाती है। जब तक तुम दूसरे को जिम्मेवार समझोगे, तब तक क्रांति असंभव है; क्योंकि तब तक तुम निर्भर रहोगे। तुम सोचेते हो कि दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं, तो फिर तुम कैसे सुखी हो सकोगे ? असंभव है; क्योंकि दूसरों का बदलना तुम्हारे हाथ नहीं। तुम्हारे हाथ में तो केवल स्वयं को बदलना है।

अगर तुम सोचते हो कि भाग्य के कारण तुम दुखी हो रहे हो तो फिर तुम्हारे हाथ के बाहर हो गई बात। भाग्य को तुम कैसे बदलोगे ? भाग्य तुमसे ऊपर है। और तुम अगर सोचते हो कि तुम्हारी विधि में ही विधाता ने लेख लिख दिया है-जो हो रहा है, तो तुम एक परतंत्र यंत्र हो जाओगे; तो तुम आत्मवान न रहोगे।
आत्मा का अर्थ ही यह है कि तुम स्वतंत्र हो; और, चाहे कितनी ही पीड़ा तुम भोग रहे हो, तुम्हारे ही निर्णय का फल है। और, जिस दिन निर्णय बदलोगे, उसी दिन जीवन बदल जाएगा। फिर, जीवन को देखने के ढंग पर सब कुछ निर्भर करता है।

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर में मेहमान था। सुबह बगीचे में घूमते वक्त अचानक मेरी आँख पड़ी, देखा कि पत्नी ने एक प्याली नसरुद्दीन के सिर की तरफ फेंकी। लगी नहीं सिर में, दीवार से टकराकर चकनाचूर हो गई। नसरूद्दीन ने भी देख लिया कि मैंने देख लिया है। तो वह बाहर आया और उसने कहा, ‘‘क्षमा करें ! आप कुछ और न सोच लें ! हम बड़े सुखी हैं।
 

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